Kushal Pathshala

शोध प्रक्रिया के चरण (Step of Research Process)

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  • Post category: Research Aptitude

शोध नया ज्ञान प्राप्त करने का एक माध्यम है। शोध में शोधार्थी को अनुसंधान कार्य पूरा करने के लिए शोध के विभिन्न चरणों से गुजरना पड़ता है। शोधार्थी को शोध प्रक्रिया में प्रत्येक चरण पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है जिससे सही ढंग शोध कार्य संपन्न हो सके। शोध प्रक्रिया के प्रत्येक चरण की विस्तृत कार्य योजना तैयार करना चाहिए तथा प्रत्येक चरणों को ध्यान पूर्वक अवलोकन कर और जांच कर आवश्यकता अनुसार परिवर्तन एवं संशोधन कर लेना चाहिए। जैसा कि हम लोग जानते हैं कि शोध एक सतत चलने प्रक्रिया है इसमें कोई कार्य अन्तिम नहीं होता। शोध प्रक्रिया में शोधार्थी को विभिन्न स्तर पर निम्नलिखित चरणों से गुजरना होता है।

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Table of Contents

1. शोध समस्या की पहचान करना ( Identifying of the Research Problem)

प्रथम चरण में शोधार्थी को शोध समस्या की पहचान करना होता है अर्थात जिसे विशिष्ट क्षेत्र में उसे शोध कार्य करना है उसकी पहचान करना होता है। शोध समस्या ऐसी होनी चाहिए जिससे किसी नये ज्ञान की आविर्भाव हो और समसामयिक रूप से उपयोगी हो।इसमें शोधार्थी विशेष शोध समस्या का चयन करता है अर्थात वह एक विशेष विषय क्षेत्र पर कार्य करने के लिए मन:स्थिति बनाता है और विशिष्ट शोध समस्या का प्रतिपादन परिष्कृत तकनीकी शब्दों में करता है। शोधार्थी को ध्यान रखना चाहिए कि शोध समस्या का प्रतिपादन प्रभाव कारी एवं स्पष्ट तकनीकी शब्दावली में किया जाए। इसके साथ-साथ शोधार्थी को शोध समस्या में समाहित उप समस्याएं कौन-कौन सी हैं। इसका भी विस्तार से वर्णन करना चाहिए एवं शोधार्थी को विषय शोध विषय क्षेत्र में विशिष्ट साहित्य खोज करना चाहिए जिससे शोध विषय के बारे में स्पष्ट ज्ञान हो सके।

2. संबंधित साहित्य का सर्वेक्षण ( Review of Relevant Literature)

शोधार्थी अपने विशेष शोध समस्या से संबंधित विषय पर गहन अध्ययन करता है। अन्य शोधकर्ताओं और विद्वानों द्वारा अद्यतन किए गए शोध कार्य का गहन अध्ययन व अवलोकन करता है। शोधकर्ता शोध से संबंधित शोध प्रबंधों, लेखों व अन्य स्वरूपों में उपलब्ध सामग्री का गहन सर्वेक्षण करता है। जिससे शोधार्थी को शोधकार्य करने की दिशा निर्देश मिलता है। इसमें शोधकर्ता अपने शोध समस्या से जुड़ी हुई अभी तक किए गए शोध प्रविधि, आंकड़ों का संकलन विधि और तकनीकी, आंकड़े विश्लेषण तकनीकी आदि का भी सार तैयार करता है।

शोधार्थी को इस चरण में यह भी स्पष्ट उल्लेख कर लेना चाहिए कि उसका शोध कार्य पूर्वर्ती शोध कार्य से किस तरह भिन्न है। इस चरण में संबंधित विषय क्षेत्र पर महत्वपूर्ण जानकारी प्राथमिक, द्वितीयक व तृतीयक सूचना स्रोत तथा अन्य स्रोत से प्राप्त कर गहन चिंतन और साहित्य सर्वेक्षण कर लेना आवश्यक होता है, ताकि शोधार्थी को शोध कार्य करने में एक दिशा निर्देश मिल सके।

3. उपयुक्त शोध प्रविधि का चयन (Selection of Appropriate Research Method)

इस चरण में शोधार्थी को उपयुक्त शोध प्रविधि का चयन करना होता है। हर शोध समस्या एक विशिष्ट प्रकार की होती है और उसका समाधान भी एक विशेष शोध प्रविधि की सहायता से खोजा जा सकता है यदि हम समय विस्तार के आधार पर संबंधित समस्याओं के उत्तर खोजने का प्रयास करें तो निम्न मुख्य तीन शोध प्रविधि को अपनाना होता है -ऐतिहासिक शोध प्रविधि (Historical Method), सर्वेक्षण शोध प्रविधि  (Survey Method), प्रयोगात्मक शोध प्रविधि (Experimental Method)

  • ऐतिहासिक शोध प्रविधि उस शोध समस्या का समाधान के लिए उपयोगी होता है जिसमें शोधार्थी को भूतकाल में उत्तर या समाधान खोजना होता है। उदाहरण स्वरूप भारतीय स्वतंत्रता से पूर्व पुस्तकालयों की स्थिति, डॉ एस आर रंगनाथन का पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान के विकास में योगदान आदि इस शोध प्रविधि में वर्तमान परिस्थिति और समस्याओं का हल भूतकाल में हुए संबंधित विषय का अध्ययन के आधार पर खोजने का प्रयास किया जाता है।
  • सर्वेक्षण शोध प्रविधि में उन समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। जिसका हल वर्तमान परिस्थिति में से खोजना होता है। यह प्रविधि सामाजिक विज्ञान में सबसे अधिक प्रयोग होता है जैसे पाठक-अध्ययन, पुस्तकालय सर्वेक्षण, ग्रामीण पाठकों का सूचना खोजने संबंधी व्यवहार आदि शोध समस्याओं का समाधान खोजने का प्रयास किया जाता है।

4. शोध परिकल्पना का प्रतिपादन ( Formulation of Research Hypothesis)

शोध प्रक्रिया को सही दिशा प्रदान करने के लिए शोध प्राककल्पना का प्रतिपादन करना अत्यंत आवश्यक है। शोध में आंकड़े के संकलन और विश्लेषण के पूर्व शोध के परिणामों का अनुमान करना परिकल्पना है। यह एक बुद्धिमत्ता पूर्ण भविष्यवाणी होती है। यह परिकल्पना पूर्व निर्धारित सिद्धांतों अपना व्यक्तिगत अनुभवों अथवा आनुभविक विचारों के आधार पर शोध प्राक्कलन का निर्माण किया जाता है।

5. आंकड़ा संकलन तकनीक और उपकरणों का चयन ( Selection of Data Collection Tools and Techniques)

शोध के लिए आंकड़ा संकलन की अनेक विधियां हैं। शोधार्थी को अपनी शोध समस्या के अनुरूप तकनीकों का सहारा लेने की आवश्यकता होती है। प्रत्येक तकनीक और उपकरण एक विशिष्ट प्रकार के शोध के लिए उपयोगी होता है। अतः शोधार्थी को अपने शोध समस्या के अनुरुप तकनीक और उपकरण का चयन करना होता है ताकि आसानी से शोध समस्या का हल निकाला जा सके। शोध समस्या के समाधान हेतु आंकड़े का संकलन हेतु निम्नलिखित तकनीक और उपकरण का प्रयोग करते हैं।

  • अवलोकन (Observation)
  • मापन (Measurement) एवं
  • प्रश्नावली (Questionnaire)
  • अवलोकन (Observation) आंकड़ा संकलन का एक महत्वपूर्ण तकनीक है। यह तकनीक व्यक्ति या समूह के व्यवहार अध्ययन व विशेष परिस्थिति अध्ययन करने में अत्यंत ही उपयोगी होता है। कृष्ण कुमार इसके तीन घटक बताएं है – अनुभूति (Sensation), मनोयोग (Attention), एवं प्रत्यक्ष ज्ञान (Perception)। अनुभूति में हम संवेदी अंगों जैसे आंख, कान, नाक, त्वचा आदि का उपयोग किया जाता है। मनोयोग से तात्पर्य अध्ययन की जा रही विषय वस्तु पर एकाग्रता की क्षमता से है। प्रत्यक्ष ज्ञान एक व्यक्ति को तथ्यों को पहचानने में, अनुभव, आत्म-विश्लेषण, अनुभूति के उपयोग के द्वारा समर्थ बनाता है।
  • मापन (Measurement) का प्रयोग शोध समस्या के समाधान में प्रयोग करते हैं। शोधार्थी द्वारा निर्धारित उद्येश्य की पूर्ति हेतु मापन की विभिन्न विधियों का अनुसरण किया जाता है। इसके अन्तर्गत सूचियां, समाजमिति, संख्यात्मक मापनी, वर्णनात्मक मापनी, ग्राफिक मापनी, व्यक्ति से व्यक्ति मापनी इत्यादि का उपयोग करते हैं।
  • प्रश्नावली (Questionnaire) का प्रयोग शोधार्थी प्रश्न पूछने में प्रश्नावली, अनुसूची अथवा साक्षात्कार तकनीक करते हैं। प्रश्नावली शोधार्थी प्रश्न माला तैयार कर उत्तर दाताओं को डाक, ईमेल अथवा व्यक्तिगत रूप से देता है। उत्तरदाता प्रश्नावली को पढ़कर उत्तर पूरित करते हैं। अनुसूची में शोधार्थी उत्तरदाताओं से स्वयं प्रश्न पूछकर उत्तर की प्राप्त करता है जबकि साक्षात्कार में उत्तरदाता एवं शोधार्थी आमने-सामने बैठकर संवाद करते हैं।

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Research मीनिंग : Meaning of Research in Hindi - Definition and Translation

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  • systematic investigation to establish facts
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रिसर्च मेथोदोलोग्य | Research Methodology

Research Methodology by बी. एम. जैन - B. M. Jain

सम्बंधित पुस्तकें :

  • रसायन विज्ञान [भाग २] - [Hindi]
  • विद्या ज्ञान प्रकाश - [Hindi]
  • इण्टरमीडिएट हिंदी चयन - [Hindi]
  • पदार्थ विज्ञान - [Hindi]
  • नॉलेज एप्लीकेशन स्किल्स - [Hindi]
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What is social research in Hindi – Easy to understand in hindi

What is social research in hindi learn easily.

What is social reasearch in hindi - Easy to understand in hindi

Meaning and definition of social research / सामाजिक शोध का अर्थ और परिभाषा

  • क्या आपके शोध का विषय वास्तव में आपकी रुचि है?
  • क्या आपके शोध के विषय पर वैज्ञानिक जांच करना संभव है?
  • क्या आपके पास अपने शोध को शुरू करने और पूरा करने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं?
  • क्या आप अपने शोध प्रश्न पूछकर या कुछ विधियों और तकनीकों का उपयोग करके किसी नैतिक या नैतिक समस्या ओं का सामना कर सकते हैं रिसच की?
  • क्या आपके शोध का विषय सैद्धांतिक रूप से महत्वपूर्ण और दिलचस्प है?

Types  of social research / अनुसंधान के प्रकार

What is social research in hindi and samajik anushandhan

  •   मूल और लागू / Basic and applied
  •   वर्णनात्मक और विश्लेषणात्मक / Descriptive and analytical
  •   अनुभवजन्य और खोजपूर्ण / Empirical and exploratory
  •   मात्रात्मक और गुणात्मक / quantitative and qualitative
  •   व्याख्यात्मक (कारण) और अनुदैर्ध्य / Explanatory (causal) and longitudinal
  •   प्रायोगिक और मूल्यांकन / Experimental and evaluative
  •   सहभागी क्रिया अनुसंधान / Participatory action research

What is social reasearch in hindi - Easy to understand in hindi

1. मूल (या शुद्ध या मौलिक) और अनुप्रयुक्त अनुसंधान / Basic (or pure or fundamental) and applied research

2. वर्णनात्मक और विश्लेषणात्मक अनुसंधान / descriptive and analytical research, 3.अनुभवजन्य और खोजपूर्ण अनुसंधान / empirical and exploratory research, 4) मात्रात्मक और गुणात्मक अनुसंधान / quantitative and qualitative research, 5) व्याख्यात्मक (या कारण) और अनुदैर्ध्य अनुसंधान / explanatory (or causal) and longitudinal research, leave a comment cancel reply.

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# ऐतिहासिक अनुसंधान पद्धति : अर्थ, परिभाषा, स्त्रोत, प्रमुख चरण, गुण एवं दोष (historical method in hindi).

Table of Contents

ऐतिहासिक अनुसंधान पद्धति :

इतिहास शब्द का उद्गम ‘ Historia ‘ शब्द से हुआ है, जिनका मूल अर्थ होता है सीखना या खोज द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान। प्राचीनकाल में मानव इतिहास के अन्तर्गत भूतकालीन घटनाओं का खोजपूर्ण अध्ययन होता था। एक इतिहासकार का यह कार्य होता है, कि वह भूतकाल की घटनाओं के विषय में सामग्री एकत्रित करे तथा उनकी सही व समुचित व्याख्या करे।

आधुनिक युग में इतिहास के विषय में नया दृष्टिकोण यह है कि यह एक दिये हुए मानव समाज व सांस्कृतिक विशेष की संस्थाओं को दृष्टिगत रखते हुए मानव घटनाओं के विषय में सत्य विवरण प्रदान करे। सत्य तो यह है कि कोई भी घटना सामाजिक शून्य (Social Vacuum) में नहीं होती।

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अब ऐतिहासिक पद्धति का उद्देश्य भूतकाल और सामाजिक शक्तियों के विषय में अनुसन्धान कर सिद्धान्तों को निरूपित करना हो गया है। अब यह माना जाने लगा है कि वास्तविक इतिहास में केवल राजों, महाराजों और युद्धों का ही उल्लेख नहीं होना चाहिये, अपितु उन सभी सामाजिक, साँस्कृतिक संस्थाओं और गतिविधियों का उल्लेख तथा सही विवचेन होना चाहिए जिन्होंने भूतकाल में समाज की रचना करने या उसको गतिशील बनाने में प्रयत्क्ष व अप्रत्यक्ष रूप से कार्य किया था।

आधुनिक युग में इस प्रकार के इतिहास के निर्माण के लिए प्रो० टॉयन्बी, रोस्टोटजेब, कोल्टन व जैकोब बरखर्डच (Toynbey, Rostovtzeb, Coulton, Jacob Burkhardt) प्रेरक बने हैं, क्योंकि इनकी यह मान्यता रही है कि इतिहास को मानवीय सम्बन्ध, सामाजिक प्रतिमानों, जनरीतियों व प्रथाओं और समाज की अन्य महत्वपूर्ण संस्थाओं से सम्बन्धित रहना चाहिये। इतिहास व समाजविज्ञान इस समान उपागम के फलस्वरूप अत्यन्त निकट आते जा रहे हैं और समाजविज्ञान में ‘ ऐतिहासिक समाज विज्ञान ‘ (Historical Sociology) नामक अध्ययन शाखा के विकास का जिसके प्रमुख विद्वान सिगमंड व डायमंड विरबाय रोबर्ट बैल्लाह, रेमन्ड आइरन आदि हैं।

स्पष्ट है कि इतिहास अब केवल भूतकालीन किस्से-कहानियों तक ही सीमित नहीं रह गया है, बल्कि आज के वैज्ञानिक युग में इसकी विवरणात्मक प्रकृति को भी विश्लेषण रूप प्रदान किया जा रहा है। अब इसके अन्तर्गत, विभिन्न घटनायें घटित होने की परिस्थितियाँ, उनके परिणाम, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक-सांस्कृतिक तथा राजनैतिक क्षेत्रों में हुए परिवर्तन तथा भविष्य में सम्भव हो सकने वाली रूपरेखा इत्यादि का अध्ययन किया जाने लगा है। लेकिन भूतकालीन समाज के विस्तृत तथा गहन अध्ययन, अतीत के महत्वपूर्ण तथ्यों और घटनाओं, उनके सन्दर्भ में वर्तमान समाज की जानकारी, समाज को प्रभावित करने वाले तत्व या कारक तथा इनके विश्लेषण, इत्यादि के लिये किसी पद्धति की आवश्यकता पड़ती है। यह पद्धति ऐतिहासिक पद्धति ही है। इस पद्धति को परिभाषित करते हुए श्रीमति यंग ने बताया है कि “वह प्रणाली जो ऐसे भूतकालीन सामाजिक तत्वों तथा प्रभावों की, जिन्होंने ‘वर्तमान’ को रूप प्रदान किया है, खोज करके आगमन विधि के आधार पर कुछ सिद्धान्तों का निर्माण करती है, ऐतिहासिक पद्धति मानी जाती है।”

श्रीमती पी. वी. यंग के अनुसार , “ऐतिहासिक पद्धति आगमन के सिद्धांतों के आधार पर अतीत की एवं सामाजिक शक्तियों की खोज है जिन्होंने की वर्तमान को ढाला है।”

ऐतिहासिक पद्धति का अनुकरण करने वाले व्यक्ति को निम्नांकित दोषों से बचने का प्रयास करना चाहिए :

समाजशास्त्रियों का मत है कि ऐतिहासिक पद्धति का अनुकरण करने वाले व्यक्ति को निम्नांकित दोषों से बचने का प्रयास करना चाहिए-

1. अति सरल (Over Simplification) अर्थात् बहुत अधिक सरल सम्बन्धों को ढूँढने व सरल ढंग में तथ्य प्रस्तुत करने का प्रयास करना।

2. अति सामान्यीकरण (Over generalization) अथवा बहुत अधिक सामान्यीकारण की प्रवृत्ति प्रदर्शित करना।

3. पूर्व समय में प्रचलित शब्दों की व्याख्या न कर पाना (Failure to interpret terms prevent in the past)।

4. महत्वपूर्ण व अमहत्वपूर्ण तथ्यों के बीच अन्तर न कर पाना (Failure to distinguish between significant and insignificant facts)।

5. कल्पनात्मक इतिहास (Conjunctural History) बनाने का प्रयास करना।

ऐतिहासिक सामग्री के स्रोत :

ऐतिहासिक पद्धति की द्वारा किसी अध्ययन को पूर्ण करने की दृष्टि से जिस सामग्री की आवश्यकता पड़ती है, उसे कुछ स्रोतों से प्राप्त करना पड़ता है।

श्रीमती यंग ने ऐतिहासिक स्रोतों को तीन भागों में विभाजित किया है-

1. इतिहासकार की पहुँच के भीतर प्राप्त प्रलेख तथा विवधि सामग्री

प्रथम श्रेणी के अन्तर्गत प्राप्त होने वाले प्रलेखों में वेद, पुराण, स्मृतियाँ, उपनिषद् इत्यादि ग्रंथ सम्मिलित किये जा सकते हैं तथा खुदाई के फलस्वरूप प्राप्त वस्तुएं, अजन्ता, एलोरा तथा खजुराहो इत्यादि की गुफाओं के लेख भी महत्वपूर्ण स्रोत बन सकते हैं।

2. साँस्कृतिक इतिहास तथा विश्लेषण इतिहास सामग्री

द्वितीय श्रेणी के अन्तर्गत् सांस्कृतिक य विश्लेषणात्मक इतिहास किसी भी काल या युग में किसी समाज की सांस्कृतिक स्थिति का बोध कराता है तथ उसके विभिन्न साँस्कृतिक तत्वों के स्वरूप एवं उनमें विकास तथा परिवर्तन की ओर ध्यान दिलाता है।

3. विश्वसनीय अवलोकन कर्त्ताओं तथा गवाहों के निजी स्रोत

तृतीय श्रेणी के अन्तर्गत, समय-समय पर व्यक्तिगत इतिहासकारों ने अपनी यात्राओं या पर्यटनों द्वारा जो अवलोकन या निरीक्षण किये हैं और ऐतिहासिक विवरणों के रूप में प्रस्तुत किये हैं, ऐसी सामग्री को सम्मिलित किया जा सकता है।

इस प्रकार की सूचनायें या सामग्री हमें आज भी भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के अधीन या विभिन्न राज्यों के संग्रहालयों में देखने तथा अध्ययन करने को उपलब्ध हो सकती हैं। यही कारण है कि प्रायः ऐतिहासिक पद्धति को ही संग्रहालय पद्धति के नाम से जाना जाता है।

ऐतिहासिक पद्धति के चरण :

ऐतिहासिक पद्धति के निम्नांकित चरण हैं जिनका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है-

1. समस्या का चुनाव अध्ययन

समस्या इस प्रकार की होनी चाहिए जिससे भूतकालीन समाज के वास्तविक स्वरूप को यथासम्भव यथार्थ रूप से समझा जाना आवश्यक हो तथा उसके आधार पर वर्तमान दशाओं तथा उनमें हुए परिवर्तनों को ज्ञात किया जा सके और भविष्य की प्रवृत्ति का अनुमान लगाना सम्भव हो। उस पर लगने वाले समय, धन व स्वयं की लागत का सही अनुमान लगाने के उपरान्त ही किसी समस्या को चुना जा सकता है।

2. तथ्य संकलन

तथ्यों के संकलन में उनकी प्रकृति तथा उपलब्ध स्रोतों पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। अध्ययनकर्त्ता की अपने योग्यता, प्रशिक्षण तथा अनुभव भी उसकी कुशलता में सहायक होते हैं। सरकारी तथा गैर सरकारी प्रलेखों का उचित प्रकार से प्रयोग किया जाना चाहिए। अनावश्यक सामग्री की छटनी कर देनी चहिए।

3. ऐतिहासिक आलोचना

बाह्य आलोचना का अर्थ है कि जो भी प्राथमिक या द्वितीय स्रोत उपलब्ध हो पाये हैं उनकी प्रमाणिकता अथवा वास्तविकता की जाँच की जाये कि कही सामग्री झूठी या जाली तो नहीं है। आन्तरिक आलोचना के अन्तर्गत यह देखना आवश्यक होता है कि किसी भी स्रोत का लेखक कितना सच्चा रहा है? क्या उसने किसी पक्षपात् अभिनति या अज्ञान के वशीभूत होकर तो नहीं लिखा है? क्या उसने घटना विशेष के घटित होते ही लिखा है या बाद में, उसके सूचनादाता कौन रहे हैं और किस प्रकार उसको सूचना प्राप्त हुई और कहाँ तक सूचना को सार्थक माना जाना चाहिये?

4. साम्रगी की व्याख्या

संकलित की गई सामग्री की उपयुक्त आलोचना के उपरान्त उसकी व्याख्या का चरण आता है। अध्ययनकर्त्ता किन-किन तथ्यों के आधार पर किन-किन निष्कर्षो पर पहुँचता है, यह स्पष्टतः बतलाना होता है। इस प्रकार की व्याख्या करने के लिये अध्ययनकर्त्ता को बहुत ही कुशलता व बारीकी से कार्य करना पड़ता है।

5. प्रतिवेदन निर्माण

प्रतिवेदन के निर्माण में अध्ययनकर्ता को ठीक उसी प्रकार कार्य करना होता है। जैसे कि समाजशास्त्र का कोई भी अध्ययनकर्त्ता अपने अध्ययन के प्रतिवेदन को बनाने में करता है। प्रतिवेदन में उपयुक्त शीर्षकों को तथा अनुच्छेदों के अन्तर्गत सामग्री को आकर्षित ढंग से प्रस्तुत करना चाहिये। लिखने की शैली सरल, स्पष्ट, रोचक व वस्तुनिष्ठ होनी चाहिये। सभी महत्वपूर्ण सामग्री, अन्य व्यक्तियों के महत्वपूर्ण कथन आदि को संलग्न पत्रों के रूप में लगाना चाहिये। आवश्यक प्रालेख, रेखाचित्र, मानचित्र, फोटोग्राफ आदि को भी उचित ढंग से लगाना चाहिये।

ऐतिहासिक पद्धति के गुण :

ऐतिहासिक पद्धति समाजशास्त्र की एक विशिष्ट एवं उपयोगी पद्धति है। इस पद्धति के प्रयोग के महत्व को निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है-

1. परिवर्तन के स्वरूप को जानना

ऐतिहासिक पद्धति से हमें यह भी ज्ञान प्राप्त होता है कि समाज एवं संस्कृति में समय-समय पर कौन-कौन से परिवर्तन होते हैं, कौन-कौन सी घटनायें घटित होती रही हैं तथा उनका वर्तमान स्वरूप क्या है? वस्तुतः यह पद्धति परिवर्तन एवं विकास की प्रकृति की ओर संकेत करती है एवं कार्य कारण सम्बन्ध भी स्थापित करती है।

2. भूतकाल के महत्व को जानना

इतिहास को भूतकालीन अनुभवों तथा वर्तमान मनोवृत्तियों एवं मूल्यों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने वाली श्रृंखला माना जा सकता है। इससे हम अतीत की परम्पराओं, प्रथाओं, रीति-रिवाजों, आदर्शों एवं मूल्यों तथा संस्थाओं आदि की जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। ऐतिहासिक पद्धति से प्रत्येक लम्बे इतिहास वाले समाज की सही जानकारी प्राप्त होती है।

3. उपकल्पनाओं का निर्माण

यह विधि उपकल्पनाओं का भी स्रोत हैं। जब एक अध्ययनकर्त्ता अध्ययन की जा रही घटना के सन्दर्भ में ऐतिहासिक सामग्री का संकलन करता है तो उसे अनेक नवीन तथ्यों का विभिन्न तथ्यों में सम्बन्धों का पता चलता है, जिसके आधार पर वह उपकल्पनाओं का निर्माण करता है।

4. वर्तमान समाज को समझना

इस पद्धति से हमें उन सामाजिक शक्तियों का परिचय प्राप्त होता है जो समाज के वर्तमान स्वरूप को अतीत पर आधारित करती हैं। दूसरे शब्दों में यह पद्धति अतीत के माध्यम से वर्तमान को समझने में लाभदायक होती हैं।

5. इतिहास की व्यावहारिक उपयोगिता

ऐतिहासिक पद्धति की सामग्री सामाजिक स्थितियों, मानव समस्याओं तथा उनके विकास एवं वर्तमान स्थिति के जानने के लिये भी उपयोगी सिद्ध होती है। यह समाज के पुनर्निर्माण के लिये, वर्तमान समस्याओं पर इसका प्रभाव देखने और इनके सुधारों की आवश्यकता जानने हेतु तथा सामाजिक नियोजन एवं उन्नति हेतु बुद्धिमत्तापूर्ण आधार बनाती है।

6. द्वैतीयक स्रोत के रूप में

वस्तुतः ऐतिहासिक प्रलेख केवल कुछ पीढ़ियों तक ही नहीं, वरन् कितनी ही शताब्दियों तक की घटनाओं को प्रदर्शित करते हैं। ये अधिकांश रूप में सामाजिक शोध के विद्यार्थियों को द्वैतीयक सूचनाओं के प्रयोग करने में, जो इतिहास की ही एक व्याख्या है, सहायक होते हैं।

ऐतिहासिक पद्धति के दोष :

ऐतिहासिक पद्धति उपयोगी होते हुये भी प्रायः अनुपयुक्त पाई जाती है। इसके प्रमुख दोष निम्नांकित है –

1. बिखरे हुये प्रलेख

इस विधि के अर्न्तगत अध्ययन हेतु जो सामग्री चाहिये, वह प्रायः एक साथ एक ही स्थान पर नहीं मिल पाती। इन आवश्यक तथ्यों को बिखरे हुये स्थानों से एकत्रित करने में अधिक समय व धन व्यय होता है। इस सबके बावजूद भी पूर्ण सामग्री उपलब्ध नहीं हो पाती है।

2. सत्यापन की कठिनाई

इस विधि के माध्यम से अतीत की घटनाओं की जांच या उनका सत्यापन करना भी कठिन होता है। श्रीमती यंग के अनुसार, “अनुसंधाकर्त्ता समस्त ऐसी ऐतिहासिक सामग्री का जो सामाजिक स्थितियों तथा संस्थाओं का निर्माण करती है परीक्षण और जाँच नहीं करता है। ज्यादा से ज्यादा, वह केवल कुछ ऐसी घटनाओं का अध्ययन कर सकता है जो उसके अध्ययन के अन्तर्गत विश्वासों, व्यवहार प्रतिमानों तथा प्रथाओं से सम्बन्धित हैं।”

3. घटनाओं की पुरावृत्ति असम्भव

इस विधि के अन्तर्गत जिन घटनाओं एवं तथ्यों का अध्ययन किया जाता है, वे सभी अतीत से सम्बन्धित होते हैं। अध्ययनकर्त्ता को इनके अध्ययन की सहायतार्थ द्वैतीयक सामग्री, प्रलेख व रिकार्ड आदि पर निर्भर रहना पड़ता है। उसके समक्ष उक्त घटनाओं की पुनरावृत्ति भी असम्भव होती है।

4. विश्वसनीयता की समस्या

वस्तुतः स्वयं इतिहासकारों को एक ही स्थान तथा समय पर घटित होने वाली समस्त घटनाओं की पूर्ण जानकारी नहीं होती। फिर इतिहासकार ऐसी बहुत सी बातें भी छोड़ देते हैं, जो समाजशास्त्री के लिये बहुत आवश्यक हो सकती हैं। ऐतिहासिक तथ्य जिन स्रोतों से एकत्रित किये जाते हैं, उनके संकलन-कर्त्ताओं के प्रति भी पूर्ण विश्वसनीयता उत्पन्न नहीं हो पाती।

5. केवल वर्णनात्मक अध्ययन

इस विधि के अन्तर्गत केवल घटनाओं का वर्णन ही किया जा सकता है, विश्लेषण नहीं। लेकिन हम देखते हैं कि आधुनिक युग में समाजशास्त्र में वर्णनात्मक अध्ययनों की महत्ता निरन्तर कम होती जा रही है। इस विधि द्वारा हम गणनात्मक आंकड़ों का संकलन नहीं कर सकते।

6. ऐतिहासिक सामग्री के संकलन में कठिनाई

अतीत की घटनाओं से सम्बन्धित होने के कारण अनेक बार ऐतिहासिक सामग्री भी सरलतापूर्वक उपलब्ध नहीं हो पाती है। बहुत से सरकारी एवं गैर-सरकारी दस्तावेज ऐसे होते हैं जिन्हें अनुसन्धानकर्त्ता नहीं देख सकता।

7. सैद्धान्तिक नियमों की स्थापना सम्भव नहीं

मात्र विशिष्ट घटनाओं के अध्ययन में सहायक होने के कारण यह विधि सैद्धान्तिक नियमों की स्थापना करने में असमर्थ है। इस विधि के अन्तर्गत क्योकि ऐतिहासिक सामग्री की प्रामाणिकता की जाँच करनी कठिन होती है, अतः सैद्धान्तिक नियमों के निर्माण में इससे भी बाधा पड़ती है।

8. सुरक्षा का दोषपूर्ण होना

यह सही है कि पुरातत्व विभाग के अभिलेखागार प्रलेखों तथा रेकार्ड को पर्याप्त मात्रा में संकलित करते हैं, प्रायः इस संकलित सामग्री का अत्यन्त लापरवाही से रखा जाता है, जिसका परिणाम यह होता है कि दीमक, चूहों तथा नमी आदि से उक्त सामग्री की बहुत हानि हो जाती है। अधिक पुराने होने पर ये गल जाते हैं।

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जानिए Business Research in Hindi क्या हैं और कैसे करें?

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  • Updated on  
  • मार्च 29, 2023

business research in hindi

किसी भी काम को शुरू करने से पहले गहरे रिसर्च की आवश्यकता होती है। बिना रिसर्च के अगर आप कोई भी काम करते हैं तो उससे पहले उसके बारे में थोड़ी बहुत रिसर्च कर लेना ज़रूरी होता है। यही बात बिजनेस के बारे में भी लागू होती है। अगर आप कोई बिजनेस शुरू करना चाहते हैं, तो उस बिजनेस को शुरू करने से पहले पूरी जानकारी लें, पूरी स्टडी करें, मार्केट में जाकर उसके बारे में सारी बारीकियाँ पता करें। उसके बाद उस बिजनेस को शुरू करने को लेकर कोई कदम उठाएँ। बिजनेस रिसर्च किसी भी बिजनेस को शुरू करने से जुड़ी एक बहुत ही अहम प्रक्रिया है। आज इस ब्लॉग business research in Hindi में हम आपको बिजनेस रिसर्च के मतलब से लेकर इसके महत्व और बाकी पहलुओं के बारे में विस्तार से बताएँगे। पूरी जानकारी प्राप्त करने के लिए business research in Hindi इस ब्लॉग को अंत तक पढ़ें। 

This Blog Includes:

बिजनेस रिसर्च क्या है, बिजनेस रिसर्च कैसे किया जाता है  , बिजनेस रिसर्च कितने प्रकार के होते हैं  , बिजनेस रिसर्च के उदाहरण  , बिजनेस रिसर्च की सीमाएं , बिजनेस रिसर्च के उद्देश्य , बिजनेस रिसर्च का महत्व , बिजनेस रिसर्च की विशेषताएँ .

बिजनेस से जुड़े लक्ष्यों की पूर्ति के लिए रिसर्च करना बिजनेस रिसर्च कहलाता है। बिजनेस रिसर्च के अंतर्गत बिजनेस के उद्देश्यों और अवसरों का पता लगाया जाता है। मार्केट रिसर्च एक प्रकार से बिक्री और डाटा का एकत्रित रूप होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो बिजनेस रिसर्च मार्केट और ग्राहकों की पसंद के विषय में जानकारी इकट्ठा करना है। यह किसी भी बिजनेस को प्रारंभ करने से जुड़ी सबसे शुरुआती प्रक्रिया है, जो कि किसी भी व्यापार में बहुत ही अहम भूमिका निभाती है। 

किसी भी बिजनेस को शुरू करने से पहले उसके बारे में बेहतर तरीके से रिसर्च करना बहुत ज़रूरी है। जैसा कि आप ऊपर भी पढ़ चुके हैं कि यह किसी भी बिजनेस से जुड़ी सबसे अहम और शुरुआती प्रक्रिया है। नीचे बिजनेस रिसर्च के बारे में विस्तार से बताया गया है : 

  • प्रॉडक्ट के लिए मार्केट के मुताबिक रणनीति बनाना : आपको मार्केट के मुताबिक अपने प्रॉडक्ट के लिए स्ट्रेटेजी बनानी चाहिए। उदाहरण के लिए मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक लाल रंग को देखकर इंसान के मन में कुछ खाने की इच्छा उत्पन्न होती है। अगर आप कोई खाने पीने से जुड़ा हुआ प्रॉडक्ट बाज़ार में लेकर आ रहे हैं तो आपको उसकी पैकेजिंग लाल रंग में करनी चाहिए। इस प्रकार की रणनीति मार्केट स्ट्रेटेजी के अंतर्गत आती है। 
  • टार्गेट कस्टमर ग्रुप को समझना : आप अगर कोई भी बिजनेस शुरू करने जा रहे हैं तो आपको पहले अपने प्रॉडक्ट से जुड़े बिजनेस के कस्टमर ग्रुप को टार्गेट करना होगा। मान लीजिए आप कोई पेन बनाने का बिजनेस शुरू करने वाले हैं। तो आप पहले यह जानें कौन लोग आपका प्रॉडक्ट खरीदेंगे। आपका प्रॉडक्ट पेन है तो जाहिर सी बात है कि आपका टार्गेट कस्टमर स्टूडेंट्स और टीचर्स ही होंगे। इस हिसाब से आपको बाज़ार में चल रहे स्टूडेंट्स और टीचर्स की पसंद से जुड़ी चीजों के बारे में रिसर्च करनी चाहिए और उसी हिसाब से अपने प्रॉडक्ट को डिजाइन करना चाहिए। 
  • प्रॉडक्ट को ऑनलाइन रखना है या ऑफलाइन : आजकल सबकुछ ऑनलाइन हो गया है। किताब से लेकर कपड़ों तक सबकुछ ऑनलाइन उपलब्ध है। लेकिन यह बात हर प्रॉडक्ट के हिसाब से लागू नहीं होती। मान लीजिए आपको चिप्स का बिजनेस शुरू करना है। अब चिप्स को अगर आप ऑनलाइन बेचना शुरू करेंगे तो यह ज्यादा फायदेमंद नहीं होगा। क्योंकि चिप्स को ज़्यादातर लोग ऑनलाइन न खरीदकर सीधे दुकान से खरीदना पसंद करते हैं। इन सब बातों के बारे में आप बिजनेस रिसर्च के द्वारा ही पता कर सकते हैं। 
  • लेटेस्ट ट्रेंड के बारे में पता करें : आपको अपने बिजनेस से जुड़े लेटेस्ट ट्रेंड्स के बारे में पता होना चाहिए। उदाहरण के लिए अगर आप कपड़ों का बिजनेस शुरू करना चाह रहें हैं तो आपको पहले लेटेस्ट फ़ैशन के बारे में रिसर्च करनी पड़ेगी और उसी हिसाब से अपने प्रॉडक्ट को डिजाइन करना होगा। 
  • प्रॉडक्ट लॉंच करने का समय : बिजनेस रिसर्च की मदद से आप अपने प्रॉडक्ट को लॉंच करने का सही समय चुन सकते हैं। मान लीजिए आप कोई टीवी बनाने का बिजनेस शुरू करना चाहते हैं। आपका प्रॉडक्ट बनकर तैयार है। अगर आप अपने टीवी को ऐसे समय में लॉंच करते हैं जब क्रिकेट का वर्ल्डकप शुरू होने वाला है तो गारंटी है कि आपका प्रॉडक्ट धड़ाधड़ बिकेगा। क्योंकि उस समय क्रिकेट के दीवाने लोग पूरी तरह से क्रिकेट का मज़ा लेने के लिए नए टीवी खरीदना शुरू करेंगे। आपका प्रॉडक्ट अगर कम कीमत पर ज्यादा फीचर्स प्रदान करेगा तो जाहिर सी बात है कस्टमर्स आपके टीवी को लेना पसंद करेंगे। इसके लिए आपको यह रिसर्च करनी पड़ेगी कि क्रिकेट वर्ल्ड कप कब शुरू होने वाला है और कब तक चलेगा। उसी हिसाब से आपको अपने टीवी को मार्केट में उतारना आपके लिए फायदेमंद साबित होगा। यह सब बिजनेस रिसर्च का ही हिस्सा है। 

बिजनेस रिसर्च के प्रकार ये हैं : 

  • प्राइमरी रिसर्च : इसके अंतर्गत आप किसी भी प्रॉडक्ट के बारे में आम आदमी की राय के बारे में पता करते हैं। इसमें पब्लिक पोल जैसे गतिविधियाँ शामिल होती हैं। 
  • सेकंडरी रिसर्च : इस प्रक्रिया में कोई थर्ड पार्टी आपके लिए डाटा इकट्ठा करके देती है। 
  • गुणात्मक रिसर्च : गुणात्मक रिसर्च प्राइमरी और सेकंडरी दोनों तरह के होते हैं। इससे जुड़ा कोई निश्चित नंबर नहीं पता किया जा सकता। यह पूरी तरह से एक प्रैक्टिकल प्रोसेस है जिसके बारे सही से अनुमान लगाना मुश्किल होता है। 
  • मात्रात्मक रिसर्च : ये प्राइमरी रिसर्च और सेकंडरी रिसर्च दोनों के ही समान होते हैं मगर इन्हें आसानी से अनुमानित किया जा सकता है। 
  • ब्रांडिंग रिसर्च : यह कंपनी को एक ब्रांड के रूप में स्थापित करने में मदद करता है। इसके द्वारा यह पता लगाया जाता है कि आपके ब्रांड को लोग कितना पसंद कर रहे हैं। 
  • कस्टमर रिसर्च : कस्टमर रिसर्च के अंतर्गत आपके प्रॉडक्ट से जुड़े टार्गेट कस्टमर्स के बदलते हुए टेस्ट को पहचानता है और उस हिसाब से प्रॉडक्ट में चेंजेज़ करके बेचने में मददगार साबित होता है। 
  • उत्पाद रिसर्च : इसके   तहत यह पता लगाय जाता है कि आने वाले समय में आपका प्रॉडक्ट बाज़ार में कितनी बिक्री करने वाला है। 
  • प्रतिस्पर्धा रिसर्च : इसके द्वारा यह जानने की कोशिश की जाती है कि आपके प्रॉडक्ट की तुलना में और कौनसे उत्पाद बाज़ार में उपलब्ध हैं और उनकी खूबियाँ और कमियाँ क्या क्या हैं। इस हिसाब से आपको अपने प्रॉडक्ट को तैयार करने में मदद मिलती है। 

बिजनेस रिसर्च के उदाहरण नीचे दिए जा रहे हैं : 

  • बिजनेस के बारे में रिपोर्ट तैयार करना : इसके अंतर्गत बिजनेस से जुड़े लाभ और हानि के मुताबिक अनुमानित डाटा तैयार किया जाता है। 
  • बजट का अनुमान लगाना : इसके अंतर्गत बाज़ार में बिकने वाले उसी तरह के प्रोडक्ट्स के आधार पर अपने प्रॉडक्ट के संबंध में होने वाले कुल खर्च का अनुमान लगाया जाता है। 
  • अवसरों और टारगेट्स का अनुमान लगाना : इस प्रक्रिया के अंतर्गत उत्पाद से सबंधित अवसरों और आने वाले समय में हासिल किए जाने वाले लक्ष्यों के संबंध में एक अनुमानित रिपोर्ट तैयार की जाती है। 

किसी भी चीज़ की अपनी कुछ सीमाएं होती हैं। यही बात बिजनेस रिसार्च के बारे में भी लागू होती है। इसकी भी अपनी कुछ सीमाएं हैं। जैसे आपको अपने प्रॉडक्ट से जुड़ी रिसर्च के लिए एक थर्ड पार्टी पर निर्भर रहना पड़ता है। आप सबकुछ खुद नहीं कर सकते। न चाहते हुए भी आपको थर्ड पार्टी की मदद लेनी ही पड़ती है। इसके बाद आपको उसकी रिसर्च पर ही निर्भर रहना पड़ता है। दूसरी बात यह है कि यह रिसर्च ज़्यादातर अनुमानित होती है। अनुमान हर बार सही साबित हो ऐसा कोई ज़रूरी नहीं। 

Business research in Hindi ब्लॉग में अब बारी है बिजनेस रिसर्च के उद्देश्यों के बारे में जानने की : 

  • लॉंच से पहले प्रॉडक्ट के लिए बाज़ार के रुख को पहचानना : बिजनेस रिसर्च का उद्देश्य किसी भी प्रॉडक्ट को लॉंच करने से पहले मार्केट में उससे जुड़ी सभी जरूरी बातों के बारे में जानकारी इकट्ठा करना होता है। इसकी मदद से आपको अपने प्रॉडक्ट को बाज़ार में उतारने में बहुत सहूलियत होती है। 
  • प्रॉडक्ट से जुड़े आइडिये को फाइनल करने में मदद : बिजनेस रिसर्च के बाद ही कोई उद्यमी अपना प्रॉडक्ट फाइनल करता है। बिजनेस रिसर्च के बाद ही उसे प्रॉडक्ट रेट और इससे जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण बातों के बारे में पता चलता है। 
  • प्रॉडक्ट को इंवेस्टर्स के सामने पिच करने में आसानी : मार्केट रिसर्च के बाद ही कोई भी उद्यमी अपने उत्पाद को इंवेस्टर्स के सामने अच्छे से पिच कर पाता है ताकि वे उसके प्रोडक्ट में पैसा इन्वेस्ट कर सकें। 

अब तक आप इस ब्लॉग business research in Hindi में बिजनेस रिसर्च की सीमाओं और उद्देश्य के बारे में पढ़ चुके हैं। अब बिजनेस रिसर्च के कुछ महत्व भी जान लीजिए : 

  • दर्शकों के रुझान के बारे में बेहतर समझ विकसित करना : बिजनेस रिसर्च की मदद से आप अपने प्रॉडक्ट के प्रति दर्शकों के रुझान के बारे में जान सकते हैं। 
  • बाज़ार में मौजूद प्रतिस्पर्धी प्रोडक्ट्स के बारे में जानकारी प्राप्त हो जाना : आप बिजनेस रिसर्च के माध्यम से बाज़ार में अपने प्रॉडक्ट से मिलते जुलते प्रोडट्स की खूबियों और खामियों के बारे में आराम से जान सकते हैं। 
  • गुणवत्ता में सुधार : बिजनेस रिसर्च की मदद से आप अपने प्रोडक्ट में मार्केट की मांग के मुताबिक क्वालिटी में सुधार कर सकते हैं। 
  • संभावित खतरों की जानकारी प्रदान करना : बिजनेस रिसर्च की मदद से आप अपने प्रोडक्ट से संबन्धित खतरों के बारे में पहले से जान सकते हैं और बीमा कराकर भविष्य में होने वाले नुकसान से बच सकते हैं। 

अब अंत में business research in Hindi के अंतर्गत बिजनेस रिसर्च से जुड़ी कुछ विशेषताओं के बारे में भी जान लीजिए: 

  • इसके तहत प्राथमिक रूप से प्रोडक्ट के संबंध में बाज़ार का डाटा इकट्ठा किया जाता है। 
  • इसके तहत ही ग्राहक की पसंद के संबंध में प्राइमारी और सेकंडरी लेवल पर डाटा तैयार किया जाता है। 
  • इसका मुख्य उद्देश्य व्यापार संचालन में उद्यमी को मदद पहुंचाना होता है। 
  • हालांकि यह कभी भी पूर्णत: सही नहीं होता फिर भी किसी भी प्रोडक्ट को बाज़ार में उतारने में यह बहुत मदद प्रदान करता है। 

कुछ व्यापक लक्ष्य जो मार्केटिंग रिसर्च संगठनों को पूरा करने में मदद कर सकते हैं, उनमें शामिल हैं: महत्वपूर्ण व्यावसायिक निर्णय लेना, निवेश और फंडिंग हासिल करना, नए व्यावसायिक अवसरों का निर्धारण करना और यहां तक ​​कि व्यावसायिक विफलताओं से बचना।

मार्केटिंग रिसर्च, जिसे “विपणन अनुसंधान” के रूप में भी जाना जाता है, संभावित ग्राहकों के साथ सीधे किए गए शोध के माध्यम से एक नई सेवा या उत्पाद की व्यवहार्यता निर्धारित करने की प्रक्रिया है।

बिज़नेस रिसर्च के उद्देश्य प्रतिस्पर्धी शक्तियों (और कमजोरियों) को उजागर करना चाहते हैं, संभावित प्रभावित करने वालों की पहचान करना, ग्राहक जनसांख्यिकी को प्रकट करना, ब्रांड जागरूकता में सुधार करना और विपणन प्रभावशीलता को मापना कुछ ऐसे तरीके हैं जिनसे कंपनियां उपभोक्ता जुड़ाव को मजबूत करने के लिए गुणवत्ता अनुसंधान का उपयोग कर सकती हैं।

ऑनलाइन मार्केट रिसर्च एक प्रकार का मार्केट रिसर्च है जो ऑनलाइन उपलब्ध दो प्रकार के डेटा का लाभ उठाता है।  डेटा आपके पास है और डेटा दूसरों द्वारा प्रकाशित किया गया है । इस प्रकार की जानकारी एकत्र करने और उसका विश्लेषण करने से आपको अपने लक्षित दर्शकों के बारे में अधिक जानने और अपनी पेशकशों को सही आकार देने में मदद मिल सकती है।

उम्मीद है आपको यह ब्लॉग पढ़ने के बाद business research in Hindi इस बारे में बहुत सी जानकारियां प्राप्त हुई होगी। यदि आपको हमारा यह ब्लॉग पसंद आया हो तो आप  अपने दोस्तों और परिवार के साथ भी यह ब्लॉग जरूर शेयर करें। ऐसे ही अन्य रोचक, ज्ञानवर्धक और आकर्षक ब्लॉग पढ़ने के लिए Leverage Edu के साथ बने रहें।

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Leverage Edu स्टडी अब्रॉड प्लेटफार्म में बतौर एसोसिएट कंटेंट राइटर के तौर पर कार्यरत हैं। अंशुल को कंटेंट राइटिंग और अनुवाद के क्षेत्र में 7 वर्ष से अधिक का अनुभव है। वह पूर्व में भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के लिए ट्रांसलेशन ऑफिसर के पद पर कार्य कर चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने Testbook और Edubridge जैसे एजुकेशनल संस्थानों के लिए फ्रीलांसर के तौर पर कंटेंट राइटिंग और अनुवाद कार्य भी किया है। उन्होंने डॉ भीमराव अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, आगरा से हिंदी में एमए और केंद्रीय हिंदी संस्थान, नई दिल्ली से ट्रांसलेशन स्टडीज़ में पीजी डिप्लोमा किया है। Leverage Edu में काम करते हुए अंशुल ने UPSC और NEET जैसे एग्जाम अपडेट्स पर काम किया है। इसके अलावा उन्होंने विभिन्न कोर्सेज से सम्बंधित ब्लॉग्स भी लिखे हैं।

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